Key Points From Daily Murli – 28th December 2024
ईश्वरीय मत, दैवी मत और मनुष्य मत में कौन–सा मुख्य अन्तर है?
उत्तर:-
ईश्वरीय मत से तुम बच्चे वापिस अपने घर जाते हो फिर नई दुनिया में ऊंच पद पाते हो। दैवी मत से तुम सदा सुखी रहते हो क्योंकि वह भी बाप द्वारा इस समय की मिली हुई मत है लेकिन फिर भी उतरते तो नीचे ही हो। मनुष्य मत दु:खी बनाती है। ईश्वरीय मत पर चलने के लिए पहले–पहले पढ़ाने वाले बाप पर पूरा निश्चय चाहिए।”
1. “ओम् शान्ति। बाप ने अर्थ तो समझाया है, मैं आत्मा शान्त स्वरूप हूँ। जब ओम् शान्ति कहा जाता है तो आत्मा को अपना घर याद आता है। मैं आत्मा शान्त स्वरूप हूँ। फिर जब आरगन्स मिलते हैं तब टॉकी बनती है। पहले छोटे आरगन्स होते हैं फिर बड़े होते हैं। अब परमपिता परमात्मा तो है निराकार। उनको भी रथ चाहिए टॉकी बनने के लिए। जैसे तुम आत्मायें परमधाम की रहने वाली हो, यहाँ आकर टॉकी बनती हो। बाप भी कहते हैं मैं तुमको नॉलेज देने के लिए टॉकी बना हूँ। बाप अपना और रचना के आदि, मध्य, अन्त का परिचय देते हैं। यह है रूहानी पढ़ाई, वह होती है जिस्मानी पढ़ाई। वह अपने को शरीर समझते हैं। ऐसे कोई नहीं कहेंगे कि हम आत्मा इन कानों द्वारा सुनती हैं। अभी तुम बच्चे समझते हो बाप है पतित–पावन, वही आकर समझाते हैं – मैं कैसे आता हूँ। तुम्हारे मिसल मैं गर्भ में नहीं आता हूँ। मैं इनमें प्रवेश करता हूँ। फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह रथ है। इनको माता भी कहा जाता है।”
2. “बाप ही ज्ञान का सागर है। वही कहते हैं मैं इस मनुष्य सृष्टि का चैतन्य बीज हूँ। मैं आदि, मध्य, अन्त को जानता हूँ। मैं सत हूँ, मैं चैतन्य बीजरूप हूँ, इस सृष्टि रूपी झाड़ की मेरे में नॉलेज है। इसको सृष्टि चक्र अथवा ड्रामा कहा जाता है। यह फिरता ही रहता है। वह हद का ड्रामा दो घण्टे चलता है। इसकी रील 5 हजार वर्ष की है। जो–जो टाइम पास होता जाता है, 5 हजार वर्ष से कम होता जाता है।”
3. “मनुष्यों की अनेक मत हैं। कोई क्या कहेंगे, कोई क्या कहेंगे। अभी तुमने अनेक मनुष्य मत को भी समझा है और एक ईश्वरीय मत को भी समझा है। कितना फर्क है। ईश्वरीय मत से तुमको फिर से नई दुनिया में जाना पड़े और कोई की भी मत से, दैवी मत वा मनुष्य मत से वापिस नहीं जा सकते। दैवी मत से तुम उतरते ही हो क्योंकि कला कम होती जाती है। आसुरी मत से भी उतरते हो। परन्तु दैवी मत में सुख है, आसुरी मत में दु:ख है। दैवी मत भी इस समय बाप की दी हुई है इसलिए तुम सुखी रहते हो।”
4. “फिर पुरूषार्थ करो। ऐसे नहीं कहो बाबा माया के भूत ने हमको हरा दिया। देह–अभिमान के बाद ही तुम माया से हारते हो।”
5. “गीता में भी लिखा हुआ है मन्मनाभव। इसको महामंत्र वशीकरण मंत्र कहते हैं अर्थात् माया पर जीत पाने का मंत्र। माया जीते जगत–जीत। माया 5 विकार को कहा जाता है। रावण का चित्र बिल्कुल क्लीयर है – 5 विकार स्त्री में, 5 विकार पुरूष में। इनसे गधा अर्थात् टट्टू बन जाते हैं इसलिए ऊपर में गधे का शीश देते हैं। अभी तुम समझते हो ज्ञान बिगर हम भी ऐसे थे।”
6. “श्रीमत ही श्रेष्ठ बनाती है। तो श्रेष्ठ नई दुनिया भी जरूर चाहिए ना।”
7. “तुम बच्चे समझते हो माया बड़ी प्रबल है। कोई न कोई भूल कराती रहती है। कभी कोई उल्टा–सुल्टा पाप हो तो बाप को सच्ची दिल से सुनाना है। रावण की दुनिया में पाप तो होते ही रहते हैं। कहते हैं हम जन्म–जन्मान्तर के पापी हैं। यह किसने कहा? आत्मा कहती है – बाप के आगे या देवताओं के आगे। अभी तो तुम फील करते हो बरोबर हम जन्म–जन्मान्तर के पापी थे। रावण राज्य में पाप जरूर किये हैं। अनेक जन्मों के पाप तो वर्णन नहीं कर सकते हो। इस जन्म का वर्णन कर सकते हैं। वह सुनाने से भी हल्का हो जायेगा। सर्जन के आगे बीमारी सुनानी है – फलाने को मारा, चोरी की…., इस सुनाने में लज्जा नहीं आती है, विकार की बात सुनाने में लज्जा आती है। सर्जन से लज्जा करेंगे तो बीमारी छूटेगी कैसे? फिर अन्दर दिल को खाती रहेगी, बाप को याद कर नहीं सकेंगे। सच सुनायेंगे तो याद कर सकेंगे। बाप कहते हैं मैं सर्जन तुम्हारी कितनी दवाई करता हूँ। तुम्हारी काया सदैव कंचन रहेगी। सर्जन को बताने से हल्का हो जाता है। कोई–कोई आपेही लिख देते हैं – बाबा हमने जन्म–जन्मान्तर पाप किये हैं। पाप आत्माओं की दुनिया में पापात्मा ही बने हैं। अब बाप कहते हैं बच्चे, तुम्हें पाप आत्माओं से लेन–देन नहीं करनी है।”
8. “नई दुनिया में, पुरानी दुनिया की पढ़ाई थोड़ेही पढ़ना है। तो इतनी ऊंच पढ़ाई पर फिर अटेन्शन देना चाहिए। यहाँ बैठते हैं तो भी कोई का बुद्धियोग अच्छा रहता है, कोई का कहाँ–कहाँ चला जाता है। कोई 10 मिनट लिखते हैं, कोई 15 मिनट लिखते हैं। जिसका चार्ट अच्छा होगा उनको नशा चढ़ेगा – बाबा इतना समय हम आपकी याद में रहे। 15 मिनट से जास्ती तो कोई लिख नहीं सकते। बुद्धि इधर–उधर भागती है। अगर सब एकरस हो जाएं तो फिर कर्मातीत अवस्था हो जाए। बाप कितनी मीठी–मीठी लवली बातें सुनाते हैं। ऐसे तो कोई गुरू ने नहीं सिखाया। गुरू से सिर्फ एक थोड़ेही सीखेगा। गुरू से तो हज़ारों सीखें ना। सतगुरू से तुम कितने सीखते हो। यह है माया को वश करने का मंत्र। माया 5 विकारों को कहा जाता है। धन को सम्पत्ति कहा जाता है। लक्ष्मी–नारायण के लिए कहेंगे इन्हों के पास बहुत सम्पत्ति है। लक्ष्मी–नारायण को कभी मात–पिता नहीं कहेंगे। आदि देव, आदि देवी को जगत पिता, जगत अम्बा कहते हैं, इनको नहीं। यह स्वर्ग के मालिक हैं। अविनाशी ज्ञान धन लेकर हम इतने धनवान बने हैं। अम्बा के पास अनेक आशायें लेकर जाते हैं। लक्ष्मी के पास सिर्फ धन के लिए जाते हैं और कुछ नहीं। तो बड़ी कौन हुई? यह किसको पता नहीं, अम्बा से क्या मिलता है? लक्ष्मी से क्या मिलता है? लक्ष्मी से सिर्फ धन मांगते हैं। अम्बा से तुमको सब कुछ मिलता है। अम्बा का नाम जास्ती है क्योंकि माताओं को दु:ख भी बहुत सहन करना पड़ा है। तो माताओं का नाम जास्ती होता है।”
9. “संगमयुग को कल्याणकारी युग कहा जाता है इस युग में सदा ये स्वमान याद रहे कि मैं कल्याणकारी आत्मा हूँ, मेरा कर्तव्य है पहले स्व का कल्याण करना फिर सर्व का कल्याण करना। मनुष्यात्मायें तो क्या हम प्रकृति का भी कल्याण करने वाले हैं इसलिए प्रकृतिजीत, मायाजीत कहलाते हैं। जब आत्मा पुरुष प्रकृतिजीत बन जाती है, तो प्रकृति भी सुखदाई बन जाती है। प्रकृति वा माया की हलचल में आ नहीं सकते। उन्हों पर अकल्याण के वायुमण्डल का प्रभाव पड़ नहीं सकता।”
10. “एक दूसरे के विचारों को सम्मान दो तो माननीय आत्मा बन जायेंगे।”