Key Points From Daily Murli – 5th January 2025
2. “ब्राह्मण जीवन की पर्सनैलिटी कितनी बड़ी है! डायरेक्ट भगवान ने आपके ब्राह्मण जीवन में पर्सनैलिटी और रॉयल्टी भरी है। ब्राह्मण जीवन का चित्रकार कौन? स्वयं बाप। ब्राह्मण जीवन की पर्सनैलिटी रॉयल्टी कौन सी है? प्युरिटी। प्युरिटी ही रॉयल्टी है। है ना! ब्राह्मण आत्मायें सभी जो भी बैठे हो तो प्युरिटी की रॉयल्टी है ना! हाँ, कांध हिलाओ। पीछे वाले हाथ उठा रहे हैं। आप पीछे नहीं हो, सामने हो। देखो नज़र पीछे जाती है, आगे तो ऐसे देखना पड़ता है पीछे आटोमेटिक जाती है। तो चेक करो – प्युरिटी की पर्सनैलिटी सदा रहती है? मन्सा–वाचा–कर्मणा, वृत्ति, दृष्टि और कृति सबमें प्युरिटी है? मन्सा प्युरिटी अर्थात् सदा और सर्व प्रति शुभ भावना, शुभ कामना – सर्व प्रति। वह आत्मा कैसी भी हो लेकिन प्युरिटी की रॉयल्टी की मन्सा है – सर्व प्रति शुभ भावना, शुभ कामना, कल्याण की भावना, रहम की भावना, दातापन की भावना। और दृष्टि में या तो सदा हर एक के प्रति आत्मिक स्वरूप देखने में आये वा फरिश्ता रूप दिखाई दे। चाहे वह फरिश्ता नहीं बना है, लेकिन मेरी दृष्टि में फरिश्ता रूप और आत्मिक रूप ही हो और कृति अर्थात् सम्पर्क सम्बन्ध में, कर्म में आना, उसमें सदा ही सर्व प्रति स्नेह देना, सुख देना। चाहे दूसरा स्नेह दे, नहीं दे लेकिन मेरा कर्तव्य है स्नेह देकर स्नेही बनाना। सुख देना। स्लोगन है ना – ना दु:ख दो, ना दु:ख लो। देना भी नहीं है, लेना भी नहीं है। देने वाले आपको कभी दु:ख भी दे दें लेकिन आप उसको सुख की स्मृति से देखो। गिरे हुए को गिराया नहीं जाता है, गिरे हुए को सदा ऊंचा उठाया जाता है। वह परवश होके दु:ख दे रहा है। गिर गया ना! तो उसको गिराना नहीं है और भी उस बिचारे को एक लात लगा लो, ऐसे नहीं। उसको स्नेह से ऊंचा उठाओ। उसमें भी फर्स्ट चैरिटी बिगन्स एट होम। पहले तो चैरिटी बिगन्स होम है ना, अपने सर्व साथी, सेवा के साथी, ब्राह्मण परिवार के साथी हर एक को ऊंचा उठाओ। वह अपनी बुराई दिखावे भी लेकिन आप उनकी विशेषता देखो।”
3. “नम्बरवन बनेंगे तब तो साथ रहेंगे, सबमें नम्बर–वन, मन्सा में, वाणी में, कर्मणा में, वृत्ति में, दृष्टि में, कृति में, सबमें। तो नम्बरवन हैं या नम्बरवार हैं? तो अगर प्यार है तो प्यार के लिए कुछ भी कुर्बानी करना मुश्किल नहीं होता।”
4. “सभी कहते हैं कि पुरुषार्थ तो बहुत करते हैं, और बापदादा को देख करके रहम भी आता है पुरुषार्थ बहुत करते हैं, कभी–कभी मेहनत बहुत करते हैं और कहते क्या हैं – क्या करें, मेरे संस्कार ऐसे हैं! संस्कार के ऊपर कहकर अपने को हल्का कर देते हैं लेकिन बाप ने आज देखा कि यह जो आप कहते हो कि मेरा संस्कार है, तो क्या आपका यह संस्कार है? आप आत्मा हो, आत्मा हो ना! बॉडी तो नहीं हो ना! तो आत्मा के संस्कार क्या हैं? और ओरीज्नल आपके संस्कार कौन से हैं? जिसको आज आप मेरा कहते हो वह मेरा है या रावण का है? किसका है? आपका है? नहीं है? तो मेरा क्यों कहते हो! कहते तो ऐसे ही हो ना कि मेरा संस्कार ऐसा है? तो आज से यह नहीं कहना, मेरा संस्कार। नहीं। कभी यहाँ वहाँ से उड़के किचड़ा आ जाता है ना! तो यह रावण की चीज़ आ गई तो उसको मेरा कैसे कहते हो! है मेरा? नहीं है ना? तो अभी कभी नहीं कहना, जब मेरा शब्द बोलो तो याद करो मैं कौन और मेरा संस्कार क्या? बॉडी कॉन्सेस में मेरा संस्कार है, आत्म–अभिमानी में यह संस्कार नहीं है। तो अभी यह भाषा भी परिवर्तन करना। मेरा संस्कार कहके अलबेले हो जाते हो। कहेंगे भाव नहीं है, संस्कार है। अच्छा दूसरा शब्द क्या कहते हैं? मेरा स्वभाव। अभी स्वभाव शब्द कितना अच्छा है। स्व तो सदा अच्छा होता है। मेरा स्वभाव, स्व का भाव अच्छा होता है, खराब नहीं होता है। तो यह जो शब्द यूज़ करते हो ना, मेरा स्वभाव है, मेरा संस्कार है, अभी इस भाषा को चेंज करो, जब भी मेरा शब्द आवे, तो याद करो मेरा संस्कार ओरीज्नल क्या है? यह कौन बोलता है? आत्मा बोलती है यह मेरा संस्कार है? तो जब यह सोचेंगे ना तो अपने ऊपर ही हंसी आयेगी, आयेगी ना हंसी? हंसी आयेगी तो जो खिटखिट करते हो वह खत्म हो जायेगी। इसको कहते हैं भाषा का परिवर्तन करना अर्थात् हर आत्मा के प्रति स्वमान और सम्मान में रहना। स्वयं भी सदा स्वमान में रहो, औरों को भी स्वमान से देखो। स्वमान से देखेंगे ना तो फिर जो कोई भी बातें होती हैं, जो आपको भी पसन्द नहीं हैं, कभी भी कोई खिटखिट होती है तो पसन्द आता है? नहीं आता है ना? तो देखो ही एक दो को स्वमान से। यह विशेष आत्मा है, यह बाप के पालना वाली ब्राह्मण आत्मा है। यह कोटों में कोई, कोई में भी कोई आत्मा है। सिर्फ एक बात करो – अपने नयनों में बिन्दी को समा दो, बस। एक बिन्दी से तो देखते हो, दूसरी बिन्दी भी समा दो तो कुछ भी नहीं होगा, मेहनत करनी नहीं पड़ेगी। जैसे आत्मा, आत्मा को देख रही है। आत्मा, आत्मा से बोल रही है। आत्मिक वृत्ति, आत्मिक दृष्टि बनाओ। समझा – क्या करना है? अभी मेरा संस्कार कभी नहीं कहना, स्वभाव कहो तो स्व के भाव में रहना।”
5. “बापदादा यही चाहते हैं कि यह पूरा वर्ष चाहे सीजन 6 मास चलती है लेकिन पूरा ही वर्ष सभी को जब भी मिलो, जिससे भी मिलो, चाहे आपस में, चाहे और आत्माओं से लेकिन जब भी मिलो, जिससे भी मिलो उसको सन्तुष्टता का सहयोग दो। स्वयं भी सन्तुष्ट रहो और दूसरे को भी सन्तुष्ट करो। इस सीजन का स्वमान है – सन्तुष्टमणि। सदा सन्तुष्टमणि।”
6. “एक एक आत्मा हर समय सन्तुष्टमणि है। और स्वयं सन्तुष्ट होंगे तो दूसरे को भी सन्तुष्ट करेंगे। सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना।”
7. “कुछ भी हो जाए, अपने स्वमान की सीट पर एकाग्र रहो, भटको नहीं, कभी किस सीट पर, कभी किस सीट पर, नहीं। अपने स्वमान की सीट पर एकाग्र रहो। और एकाग्र सीट पर सेट होके अगर कोई भी बात आती है ना तो एक कार्टून शो के मुआफिक देखो, कार्टून देखना अच्छा लगता है ना, तो यह समस्या नहीं है, कार्टून शो चल रहा है। कोई शेर आता है, कोई बकरी आती है, कोई बिच्छू आता है, कोई छिपकली आती है गंदी – कार्टून शो है। अपनी सीट से अपसेट नहीं हो। मजा आयेगा।”
8. “ब्रह्मा बाप समान मास्टर दाता बनने के लिए ईर्ष्या, घृणा और क्रिटिसाइज़ – इन तीन बातों से मुक्त रहकर सर्व के प्रति शुभचिंतक बनो और शुभचिंतन स्थिति का अनुभव करो क्योंकि जिसमें ईर्ष्या की अग्नि होती है वे स्वयं जलते हैं, दूसरों को परेशान करते हैं, घृणा वाले खुद भी गिरते हैं दूसरे को भी गिराते हैं और हंसी में भी क्रिटिसाइज़ करने वाले, आत्मा को हिम्मतहीन बनाकर दु:खी करते हैं इसलिए इन तीनों बातों से मुक्त रह शुभचिंतक स्थिति के अनुभव द्वारा दाता के बच्चे मास्टर दाता बनो।”
9. “मन–बुद्धि और संस्कारों पर सम्पूर्ण राज्य करने वाले स्वराज्य अधिकारी बनो।”