Key Points From Daily Murli – 1st February 2025
“प्रश्नः–
तुम्हारा योगबल कौन–सी कमाल करता है?
उत्तर:-
योगबल से तुम सारी दुनिया को पवित्र बनाते हो, तुम कितने थोड़े बच्चे योगबल से यह सारा पहाड़ उठाए सोने का पहाड़ स्थापन करते हो। 5 तत्व सतोप्रधान हो जाते हैं, अच्छा फल देते हैं। सतोप्रधान तत्वों से यह शरीर भी सतोप्रधान होते हैं। वहाँ के फल भी बहुत बड़े–बड़े स्वादिष्ट होते हैं।”
1. “जब ओम् शान्ति कहा जाता है तो बहुत खुशी होनी चाहिए क्योंकि वास्तव में आत्मा है ही शान्त स्वरूप, उसका स्वधर्म ही शान्त है। इस पर संन्यासी भी कहते हैं, शान्ति का तो तुम्हारे गले में हार पड़ा है। शान्ति को बाहर कहाँ ढूँढते हो। आत्मा स्वत: शान्त स्वरूप है। इस शरीर में पार्ट बजाने आना पड़ता है। आत्मा सदा शान्त रहे तो कर्म कैसे करेगी? कर्म तो करना ही है। हाँ, शान्तिधाम में आत्मायें शान्त रहती हैं। वहाँ शरीर है नहीं, यह कोई भी संन्यासी आदि नहीं समझते कि हम आत्मा हैं, शान्तिधाम में रहने वाली हैं। बच्चों को समझाया गया है – शान्तिधाम हमारा देश है, फिर हम सुखधाम में आकर पार्ट बजाते हैं फिर रावण राज्य होता है दु:खधाम में। यह 84 जन्मों की कहानी है।”
2. “हर एक बच्चे को अपने दिल से पूछना है कि कितना समय बाप की याद ठहरती है? जास्ती टाइम तो बाहरमुखता में ही जाता है। यह याद ही मुख्य है। इस भारत के योग की ही बहुत महिमा है। परन्तु योग कौन सिखलाते हैं – यह किसको पता नहीं है।”
3. “यह है युधिष्ठिर, युद्ध के मैदान में बच्चों को खड़ा करने वाला। यह है नानवायोलेन्स, अहिंसक। मनुष्य हिंसा समझ लेते हैं मारा–मारी को। बाप कहते हैं पहली मुख्य हिंसा तो काम कटारी की है इसलिए काम महाशत्रु कहा है, इन पर ही विजय पानी है। मूल बात है ही काम विकार की, पतित माना विकारी। विकारी कहा ही जाता है पतित बनने वाले को, जो विकार में जाते हैं। क्रोध करने वाले को ऐसे नहीं कहेंगे कि यह विकारी है। क्रोधी को क्रोधी, लोभी को लोभी कहेंगे। देवताओं को निर्विकारी कहा जाता है। देवतायें निर्लोभी, निर्मोही, निर्विकारी हैं। वह कभी विकार में नहीं जाते। तुमको कहते हैं विकार बिगर बच्चे कैसे होंगे? उन्हों को तो निर्विकारी मानते हो ना। वह है ही वाइसलेस दुनिया। द्वापर कलियुग है विशश दुनिया। खुद को विकारी, देवताओं को निर्विकारी कहते तो हैं ना। तुम जानते हो हम भी विकारी थे। अब इन जैसा निर्विकारी बन रहे हैं। इन लक्ष्मी–नारायण ने भी याद के बल से यह पद पाया है फिर पा रहे हैं। हम ही देवी–देवता थे, हमने कल्प पहले ऐसे राज्य पाया था, जो गँवाया, फिर हम पा रहे हैं। यही चिंतन बुद्धि में रहे तो भी खुशी रहेगी। परन्तु माया यह स्मृति भुला देती है। बाबा जानते हैं तुम स्थाई याद में रह नहीं सकेंगे। तुम बच्चे अडोल बन याद करते रहो तो जल्दी कर्मातीत अवस्था हो जाए और आत्मा वापिस चली जाए। परन्तु नहीं। पहले नम्बर में तो यह जाने वाला है। फिर है शिवबाबा की बरात।”
4. “तुम योगबल से अपनी ज्योति जगाते हो। योग से तुम पवित्र बनते हो। ज्ञान से धन मिलता है। पढ़ाई को सोर्स ऑफ इनकम कहा जाता है ना। योगबल से तुम खास भारत और आम सारे विश्व को पवित्र बनाते हो।”
5. “अब बाप कहते हैं देह सहित सबको भूलना है। आप मुये मर गई दुनिया। बाप के एडाप्टेड बच्चे बने, बाकी किसको याद करेंगे। दूसरों को देखते हुए जैसे कि देखते नहीं। पार्ट में भी आते हैं परन्तु बुद्धि में है – अब हमको घर जाना है फिर यहाँ आकर पार्ट बजाना है। यह बुद्धि में रहे तो भी बहुत खुशी रहेगी। बच्चों को देह भान छोड़ देना चाहिए। यह पुरानी चीज़ यहाँ छोड़नी है, अब वापिस जाना है। नाटक पूरा होता है। पुरानी सृष्टि को आग लग रही है। अन्धे की औलाद अन्धे अज्ञान नींद में सोये पड़े हैं। मनुष्य तो समझेंगे यह सोया हुआ मनुष्य दिखाया है। परन्तु यह अज्ञान नींद की बात है, जिससे तुम जगाते हो। ज्ञान अर्थात् दिन है सतयुग, अज्ञान अर्थात् रात है कलियुग। यह बड़ी समझने की बातें हैं।”
6. “ऐसे भी युगल हैं, जो संन्यासियों को दिखाते हैं – हम युगल बनकर कभी विकार में नहीं जाते हैं। ज्ञान तलवार बीच में है। बाप का फरमान है – पवित्र रहना है।”
7. “गन्धर्वी विवाह का नाम तो है ना। तुम जानते हो पवित्र रहने से पद बहुत ऊंच मिलेगा। एक जन्म के लिए पवित्र बनना है। योगबल से कर्मेन्द्रियों पर भी कन्ट्रोल आ जाता है। योगबल से तुम सारी दुनिया को पवित्र बनाते हो। तुम कितने थोड़े बच्चे योगबल से यह सारा पहाड़ उड़ाए सोने का पहाड़ स्थापन करते हो। मनुष्य थोड़ेही समझते हैं, वह तो गोवर्धन पर्वत पिछाड़ी परिक्रमा देते रहते हैं।”
8. “कर्मातीत अवस्था बनाने के लिए देह सहित सबको भूलना है। अपनी याद अडोल और स्थाई बनानी है। देवताओं जैसा निर्लोभी, निर्मोही, निर्विकारी बनना है।”
9. “एकता के साथ एकान्तप्रिय बनना है। एकान्तप्रिय वह होगा जिनका अनेक तरफ से बुद्धियोग टूटा हुआ होगा और एक का ही प्रिय होगा। एक प्रिय होने कारण एक की ही याद में रह सकता। एकान्तप्रिय अर्थात् एक के सिवाय दूसरा न कोई। सर्व सम्बन्ध, सर्व रसनाएं एक से लेने वाला ही एकान्त–प्रिय हो सकता है।”