Key Points From Daily Murli – 15th February 2025
देह–अभिमान में आने से पहला पाप कौन–सा होता है?
उत्तर:-
अगर देह–अभिमान है तो बाप की याद के बजाए देहधारी की याद आयेगी, कुदृष्टि जाती रहेगी, खराब ख्यालात आयेंगे। यह बहुत बड़ा पाप है। समझना चाहिए, माया वार कर रही है। फौरन सावधान हो जाना चाहिए।”
1. “निराकार बाप आत्माओं को कहते हैं कि मुझे याद करो। मैं ही पतित–पावन हूँ, मुझे बुलाते भी हैं – हे पतित–पावन। श्रीकृष्ण तो देहधारी है ना। मुझे तो कोई शरीर है नहीं। मैं निराकार हूँ, मनुष्यों का बाप नहीं, आत्माओं का बाप हूँ। यह तो पक्का कर लेना चाहिए। घड़ी–घड़ी हम आत्मायें इस बाप से वर्सा लेती हैं। अभी 84 जन्म पूरे हुए हैं, बाप आया है। बाबा–बाबा ही करते रहना है। बाबा को बहुत याद करना है। सारा कल्प जिस्मानी बाप को याद किया। अभी बाप आये हैं और मनुष्य सृष्टि से सब आत्माओं को वापिस ले जाते हैं क्योंकि रावण राज्य में मनुष्यों की दुर्गति हो गई है इसलिए अब बाप को याद करना है। यह भी मनुष्य कोई समझते नहीं कि अभी रावण राज्य है। रावण का अर्थ ही नहीं समझते।”
2. “तुम्हारी यह है गीता पाठशाला। उद्देश्य क्या है? यह लक्ष्मी–नारायण बनना। यह राजयोग है ना। नर से नारायण, नारी से लक्ष्मी बनने की यह नॉलेज है। वो लोग कथायें बैठ सुनाते हैं। यहाँ तो हम पढ़ते हैं, हमको बाप राजयोग सिखाते हैं। यह सिखाते ही हैं कल्प के संगमयुग पर। बाप कहते हैं मैं पुरानी दुनिया को बदल नई दुनिया बनाने आया हूँ। नई दुनिया में इन्हों का राज्य था, पुरानी में नहीं है, फिर जरूर होना चाहिए। चक्र तो जान लिया है।”
3. “मुख्य धर्म हैं चार। अभी डिटीज्म है नहीं। दैवी धर्म भ्रष्ट और दैवी कर्म भ्रष्ट बन पड़े हैं। अभी फिर तुमको दैवी धर्म श्रेष्ठ और कर्म श्रेष्ठ सिखला रहे हैं। तो अपने पर ध्यान रखना है, हमसे कोई आसुरी कर्म तो नहीं होते हैं? माया के कारण कोई खराब ख्यालात तो बुद्धि में नहीं आते हैं? कुदृष्टि तो नहीं रहती है? देखें, इनकी कुदृष्टि जाती है अथवा खराब ख्यालात आते हैं तो उनको झट सावधान करना चाहिए। उनसे मिल नहीं जाना चाहिए। उनको सावधान करना चाहिए – तुम्हारे में माया की प्रवेशता के कारण यह खराब ख्यालात आते हैं। योग में बैठ बाप की याद के बदले कोई की देह तरफ ख्याल जाता है तो समझना चाहिए यह माया का वार हो रहा है, मैं पाप कर रहा हूँ। इसमें तो बुद्धि बड़ी शुद्ध होनी चाहिए। हँसी–मज़ाक से भी बहुत नुकसान होता है इसलिए तुम्हारे मुख से सदैव शुद्ध वचन निकलने चाहिए, कुवचन नहीं। हँसी मजाक आदि भी नहीं। ऐसे नहीं कि हमने तो हँसी की……. वह भी नुकसानकारक हो जाती है। हंसी भी ऐसी नहीं करनी चाहिए जिसमें विकारों की वायु हो। बहुत खबरदार रहना है। तुमको मालूम है नांगे लोग हैं उनके ख्याल विकारों की तरफ नहीं जायेंगे। रहते भी अलग हैं। परन्तु कर्मेन्द्रियों की चलायमानी सिवाए योग के कभी निकलती नहीं है। काम शत्रु ऐसा है जो किसको भी देखेंगे, योग में पूरा नहीं होंगे तो चलायमानी जरूर होगी। अपनी परीक्षा लेनी होती है। बाप की याद में ही रहो तो यह कोई भी प्रकार की बीमारी न रहे। योग में रहने से यह नहीं होता है। सतयुग में तो कोई भी प्रकार का गन्द नहीं होता है। वहाँ रावण की चंचलता ही नहीं जो चलायमानी हो। वहाँ तो योगी लाइफ रहती है। यहाँ भी अवस्था बड़ी पक्की चाहिए। योगबल से यह सब बीमारियाँ बन्द हो जाती हैं। इसमें बड़ी मेहनत है। राज्य लेना कोई मासी का घर नहीं। पुरूषार्थ तो करना है ना। ऐसे नहीं कि बस जो होगा भाग्य में सो मिलेगा। धारणा ही नहीं करते गोया पाई–पैसे के पद पाने लायक हैं। सब्जेक्ट्स तो बहुत होती हैं ना। कोई ड्राइंग में, कोई खेल में मार्क्स ले लेते हैं। वह है कॉमन सब्जेक्ट। वैसे ही यहाँ भी सब्जेक्ट्स हैं। कुछ न कुछ मिलेगा। बाकी बादशाही नहीं मिल सकेगी। वह तो सर्विस करेंगे तब बादशाही मिलेगी। उसके लिए बहुत मेहनत चाहिए। बहुतों की बुद्धि में बैठता ही नहीं है। जैसेकि खाना हजम ही नहीं होता। ऊंच पद पाने की हिम्मत नहीं, इसको भी बीमारी कहेंगे ना। तुम कोई भी बात देखते न देखो। रूहानी बाप की याद में रह औरों को रास्ता बताना है, अन्धों की लाठी बनना है। तुम तो रास्ता जानते हो। रचयिता और रचना का ज्ञान मुक्ति और जीवनमुक्ति तुम्हारी बुद्धि में फिरते रहते हैं, जो–जो महारथी हैं।”
4. “जितना योग में रहेंगे उतनी हेल्थ बड़ी अच्छी होगी। मेहनत करनी है। बहुतों की तो चलन ऐसी रहती है जैसे अज्ञानी मनुष्यों की होती है। वह किसका कल्याण कर नहीं सकेंगे। जब इम्तहान होता है तो मालूम पड़ जाता है कि कौन कितने मार्क्स से पास होंगे, फिर उस समय हाय–हाय करनी पड़ेगी। बापदादा दोनों ही कितना समझाते रहते हैं। बाप आये ही हैं कल्याण करने। अपना भी कल्याण करना है तो दूसरों का भी करना है। बाप को बुलाया भी है कि आकर हम पतितों को पावन होने का रास्ता बताओ। तो बाप श्रीमत देते हैं – तुम अपने को आत्मा समझ देह–अभिमान छोड़ मुझे याद करो। कितनी सहज दवाई है।”
5. “बोलो, हम सिर्फ एक भगवान बाप को मानते हैं। वह कहते हैं मुझे बुलाते हो कि आकर पतितों को पावन बनाओ तो मुझे आना पड़ता है। ब्रह्मा से तुमको कुछ भी मिलना नहीं है। वह तो दादा है, बाबा भी नहीं। बाबा से तो वर्सा मिलता है। ब्रह्मा से थोड़ेही वर्सा मिलता है। निराकार बाप इन द्वारा एडाप्ट कर हम आत्माओं को पढ़ाते हैं। इनको भी पढ़ाते हैं। ब्रह्मा से तो कुछ भी मिलने का नहीं है। वर्सा बाप से ही मिलता है इन द्वारा। देने वाला एक है। उनकी ही महिमा है। वही सर्व का सद्गति दाता है। यह तो पूज्य से फिर पुजारी बनते हैं। सतयुग में थे, फिर 84 जन्म भोग अब पतित बने हैं फिर पूज्य पावन बन रहे हैं। हम बाप द्वारा सुनते हैं। कोई मनुष्य से नहीं सुनते। मनुष्यों का है ही भक्ति मार्ग। यह है रूहानी ज्ञान मार्ग। ज्ञान सिर्फ एक ज्ञान सागर के पास ही है। बाकी यह शास्त्र आदि सब भक्ति के हैं। शास्त्र आदि पढ़ना – यह सब है भक्ति मार्ग। ज्ञान सागर तो एक ही बाप है, हम ज्ञान नदियां ज्ञान सागर से निकली हैं। बाकी वह है पानी का सागर और नदियाँ। बच्चों को यह सब बातें ध्यान में रहनी चाहिए।”
6. “अन्तर्मुख हो बुद्धि चलानी चाहिए। अपने आपको सुधारने के लिए अन्तर्मुख हो अपनी जांच करो। अगर मुख से कोई कुवचन निकले या कुदृष्टि जाए तो अपने को फटकारना चाहिए – हमारे मुख से कुवचन क्यों निकले, हमारी कुदृष्टि क्यों गई? अपने को चमाट भी मारनी चाहिए, घड़ी–घड़ी सावधान करना चाहिए तब ही ऊंच पद पा सकेंगे। मुख से कटुवचन न निकलें। बाप को तो सब प्रकार की शिक्षायें देनी होती हैं। किसको पागल कहना यह भी कुवचन है।”
7. “आत्म–अभिमान है अविनाशी अभिमान। देह तो विनाशी है। आत्मा को कोई भी नहीं जानते हैं। आत्मा का भी बाप तो जरूर कोई होगा ना। कहते भी हैं सब भाई–भाई हैं। फिर सबमें परमात्मा बाप विराजमान कैसे हो सकता है? सभी बाप कैसे हो सकते हैं? इतना भी अक्ल नहीं है! सबका बाप तो एक ही है, उनसे ही वर्सा मिलता है। उसका नाम है शिव।”
8. “कोई की भी बुद्धि में यह बातें नहीं हैं। यह लक्ष्मी–नारायण कितना ऊंच परिस्तानी से फिर कितना पतित बन जाते हैं इसलिए ब्रह्मा का दिन, ब्रह्मा की रात गाई हुई है।
9. कभी भी ऐसी हंसी–मजाक नहीं करनी है जिसमें विकारों की वायु हो। अपने को बहुत सावधान रखना है, मुख से कटुवचन नहीं निकालने हैं।”
10. “आत्म–अभिमानी बनने की बहुत–बहुत प्रैक्टिस करनी है। सबसे प्यार से चलना है। कुदृष्टि नहीं रखनी है। कुदृष्टि जाए तो अपने आपको आपेही सज़ा देनी है।”
11. “सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न आत्मा की निशानी है सन्तुष्टता, सन्तुष्ट रहो और सन्तुष्ट करो।”
12. “एकान्त एक तो स्थूल होती है, दूसरी सूक्ष्म भी होती है। एकान्त के आनन्द के अनुभवी बन जाओ तो बाह्यमुखता अच्छी नहीं लगेगी। अव्यक्त स्थिति को बढ़ाने के लिए एकान्त में रुचि रखनी है। एकता के साथ एकांतप्रिय बनना है।”